मेरा गांव भी दौड़ के शहरों में मिल गया

-शाहबाज़ अहमद

थोड़ी सी देर में ही मुकद्दर बदल गया,
लौटा जो अपने गाँव तो मंज़र बदल गया।

न फूल न वो तितलियाँ, न गुल खिला मिला,
बस धुएँ की लकीरों का सिलसिला मिला।

फसलों की जगह आज थीं ऊंची इमारतें,
खेतों ने नये दौर का सोना उगल दिया।

मैं खुश था कि गाँव में दरिया है दूध का,
पर मैकदों के शोर ने कुछ और कह दिया।

वो जो मेरा अज़ीज़ था उल्फत से यूँ मिला,
उठा के हाथ ‘हाय’ किया और चल दिया।

एक सूने मकाँ पे उदास सा बच्चा खड़ा मिला,
आकर मेरी गोद में कैसा बहल गया।

पौधों की परवरिश में गफलत का ये सिला,
तिनका भी घोसलों का चूल्हों में जल गया।

सूरज भी आ के माघ में आतिश बरस गया
पीपल की छांव के लिये तन मन तरस गया।

मैं ठगा सा रह गया, हाथों को मल लिया,
कि मेरा भी गाँव दौड़ के शहरों में मिल गया।
मेरा भी गांव दौड़ के…

लेखकः से.नि. प्रधान मुख्य वन संरक्षक म.प्र.

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