जैव विविधता संरक्षण में समाज की भूमिका एवं जावाब देही
स माज को वनों और उनकी जैवविविधत्ता की चिन्ता करनी चाहिए। उसके बिना समाज का प्रकृति एजेन्डा अधूरा है। भारतीय संस्कृति में मानव, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, जल जीय, पेड़-पौधे लताएँ, नदी तालाब झरने, मिट्टी-पहाड़ इन सबका परस्पर निर्भर संबंध खोजा गया था। उसपर शोध किया गया और प्रामाणिकता के साथ अच्छी अच्छी बातों को आचरण में ढाला गया है जिसे निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है-
दश कूप समावापी, दशवापी समोहृदः।
दश हृद समः पुत्रो, दश पुत्र समो द्रुमः ।
मत्स्यपुराण में ऋषि मनीषा कहती है- एक बावड़ी दस कुओं के बराबर होती है। एक तालाब दस बावड़ियों के बराबर होता है। एक पुत्र दस तालाबों के बराबर होता है। एक वृक्ष दस पुत्रों के बराबर होता है। यह उल्लेख वृक्षों की उपयोगिता को सिद्ध करता है।
अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया है- हे धरती माँ! जो कुछ मैं तुझसे लूँगा वह उतना ही होगा जिसे तू पुन्नः पैदा कर सके। तेरी जीवनी शक्ति पर कभी आघात नहीं करूँगा। हे माता! एक पार्थिव गंध हम सबको एक सूत्र में बाँधे हुए है। यह सूत्र, यह नाता मनुष्य के साथ ही नहीं है, वरन पशु-पक्षी नदी-पर्वत, जड़-वेतन, संपूर्ण जगत के साथ है। यह स्नेह बंधन इसी प्रकार बना रहे।
एक बात और, जब कभी हम लोग पानी और पृकृति की चिंता तथा चर्चा करेंगे तो उसके साथ-साथ अनिवार्य रूप से पेड़, पहाड़, जीव-जन्तुओं, हवा, जैवविविधता की चिन्ता और चर्चा भी करनी पड़ेगी। प्राकृतिक घटकों को खंड-खंड में नहीं अपितु एक दूसरे के पूरक के रूप मान्यता देकर समाज के एजेन्डे पर लाना होगा। वही समाज का एजेन्डा है। वही समाज की अपेक्षाओं का आईना है। वही हमारा भविष्य है। वही असली सरोकार है। यह चिन्ता, पर्यावरण चेतना है। उसी चेतना के कारण, अनेक बार, समाज मुख्य धारा में आया है।
पर्यावरण चेतना इतिहास के पन्नों मेंः
भारतवर्ष में पर्यावरण चेतना और तवानुकूल विकास के प्रमाण वैदिककाल से मिलने लगते हैं। इसी कारण, हमारे प्राचीन ग्रन्थों में प्रकृति एवं उसके घटकों (वन, जल, वृक्ष, पर्वत, जीव-जन्तुओं इत्यादि) के प्रति विशेष सम्मान भाव तथा पूजा का उल्लेख मिलता है। कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत की पूजा को प्रकृति की पूजा माना जाता है। इस पूजा के बारे में कृष्ण ने कहा था कि उनके ग्राम के समाज की आजीविका का आधार, गोवर्धन पर्वत की जैव-विविधता है।
भारतीय समाज ने स्थानीय पर्यावरण और मौसम तंत्र के सम्बन्ध को अच्छी तरह समझकर नगर बसाए थे। खेती तथा पशुपालन को आजीविका का निरापद आधार बनाया था। उनके परस्पर सम्बन्धों के विश्लेषण से पता चलता है कि अलग अलग कृषि जलवायु क्षेत्रों में बसे भारतीय ग्रामों ने खेत, खलिहान, चारागाह, जंगल और बाग-बगीचों की एक-दूसरे पर निर्भर तथा मददगार प्रणाली विकसित की थी। यह प्रणाली स्थानीय जलवायु के अनुकूल थी। यह प्रणाली बाह्य नदद से पूरी तरह मुक्त थी। निरापद थी। साईड-इफेक्ट से मुक्त थी।
भारत के अलावा, अरब देशों के चिकित्सा शास्त्रों में वायु, जल मृदा प्रदूषण तथा ठोस अपशिष्टों की व्यवस्था करने का उल्लेख है। इसी प्रकार, जब लन्दन में कोयले के धुंए के कारण प्रदूषण बढ़ गया तो सन 1272 में, ब्रिटेन के शासक किंग एडर्वड प्रथम ने कोयला जलाना प्रतिबंधित किया। औद्योगिक इकाईयों द्वारा छोडे घूंए के कारण जब वायु प्रदूषण का खतरा बढ़ा तो ब्रिटेन ने सन 1863 में ब्रिटिश एल्कली एक्ट (पर्यावरण कानून) पारित किया। महारानी विक्टोरिया के शासन काल में चलो प्रकृति की ओर लौटें (Back to Nature) आंदोलन हुआ, जनचेतना बढ़ी तथा प्राकृतिक संरक्षण के लिए अनेक सोसायटियों का का गठन हुआ। सन 1739 में बेंजामिन फेंकलिन तथा अन्य बुद्धिजीवियों ने चमड़ा उद्योग को हटाने तथा कचरे के विरुद्ध, अमेरिका की पेन्सिलवानिया एसेम्बली में, पिटीशन दायर की। 20 वी शताब्दी में, पर्यावरण आआंदोलन का विस्तार हुआ तथा वन्य जीवों के संरक्षण की दिशा में प्रयास हुये।
सन 1962 में, अमरीकी जीवशास्त्री रथेल कार्सन की पुस्तक (साइलेन्ट स्प्रिंग) प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में डी.डी.टी. तथा अनेक जहरीले रसायनों के कुप्रभावों के बारे में जानकारी दी गई थी। जिससे पता चला कि डी.डी.टी. तथा अन्य कीटना नाशकों के उपयोग से लोगों में कैन्सर पनप रहा है। पक्षियों की संख्या में कमी आ रही है। इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद, अमेरिका में पर्यावरण के प्रति जनचेतना बढ़ी। सन् 1970 में एन्वायरनमेंटल प्रोटेक्शन एजेन्सी का गठन हुआ। सन् 1972 में डी.डी.टी. के उपयोग पर रोक लगी। इसी दौरान, अनेक नये पर्यावरण समूह जैसे ग्रीनपीस तथा पृथ्वी नित्र (Friends of the Earth) अस्तित्व में आये।
भारत के प्रमुख वृक्ष बचाओ आंदोलनः पर्यावर्षीय हास का सबसे अधिक प्रभाव गरीब लोगों पर पड़ता है इसलिये जब असहायता की स्थिति निर्मित होती है तो प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण खोता समाज मुखर होने लगता है। उम्मीद की टूटती डोर की कोख से पर्यावर्षीय आंदोलन प्रारम्भ होते हैं। भारत के प्रमुख वृक्ष बचाओ आंदोलन निम्नानुसार है-
विश्नोई समाज का वृक्ष बचाओं आन्दोलनः
सन 1737 में जोधपुर रियासत में वृक्षों की रक्षा के लिये आन्दोलन हुआ था। जोधपुर के महाराजा अभय सिंह ने अपने सैनिकों को चूना बनाने के लिए बड़ी मात्रा में खेजड़ी (प्रोसोपिस) के वृक्षों को काटने के आदेश दिये। विश्नोई समाज की अमृतादेवी तथा उनकी तीन पुत्रियों ने राजाज्ञा का विरोध किया और वृक्षों को बचाने के प्रयास में अपने प्राणों की आहुति दी। उनके बलिदान की सूचना पाकर 83 गांवों के विश्नोईयों ने आंदोलन किया। इस आन्दोलन में 363 व्यक्तियों की जान गई। इसके बाद, जोधपुर नरेश ने विश्नोई ग्रामों के समीप के वनों तथा वन्य जीवों के संरक्षण के लिए आदेश जारी किया। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य वृक्षों की रक्षा था। उल्लेखनीय है कि विश्नोई समाज में शवदाह की प्रथा नही है।
चमोली का चिपको आन्दोलनः
यह आन्दोलन उत्तरांचल के हिमालय क्षेत्र में सन 1973 में प्रारंभ हुआ था। चमोली जिले की स्वयं सेवी संस्था (दशौली ग्राम स्वराज मंडल) ने ग्रामीण समाज के सहयोग से वन सम्बर्धन का उल्लेखनीय कार्य किया है। चंडीप्रसाद भट्ट ने इसे जन आन्दोलन बनाया तथा ख्याति दिलाई।
चमोली जिले के रेनी, गोपेश्वर तथा डूंगरी पायटोली गांवों की ग्रामीण महिलायें अपनी आजीविका तथा चारा, ईंधन इत्यादि की आवश्यकता के लिये स्थानीय वनों पर आश्रित थीं। जंगल कटने से उनकी आजीविका पर संकट संभव था इसलिए जंगल काटने आये ठेकेदारों के लोगों को रोकने के लिये वे अपने बाल-बच्चों सहित आगे आई। उन्होंने वृक्षों से चिपक कर वृक्षों को बचाने का प्रयास किया था। धीरे धीरे यह जन आन्दोलन आसपास के क्षेत्रों में फैला, सर्वत्र उसकी चर्चा हुई, सबने आन्दोलन की आवश्यकता से सहमति जताई। पूरे देश तथा विदेशों में उसका सन्देश गया। चिपको आन्दोलन, वन संरक्षण का पर्याय बना। कुछ लोग, इसे वन संरक्षण और पुनर्जीवन का सत्याग्रह मानते हैं। आंदोलन बताता है कि वन तथा सार्वजनिक भूमि भले ही सरकार की हों पर नैतिक रुप से वे उस समाज की हैं जो अपनी आजीविका के लिये उससे जुड़ा है।
केरल राज्य की शान्त घाटी का आन्दोलनः
केरल राज्य के पालघाट जिले में शान्त घाटी (Silent Valley) स्थित है। इस घाटी में शोर मचाने वाले कीड़ों (साइक्रेड) के नहीं मिलते इसकारण उसे शान्त घाटी के नाम से जाना जाता है। इस घाटी में उष्णकटिबन्धीय वर्षा-वन पाये जाते हैं। ये जंगल विलुप्ति की कगार पर हैं। इस घाटी के जंगलों में मनुष्यों का बहुत कम हस्तक्षेप हुआ है। इस घाटी को पाँच लाख साल पुराने जैविक पालने (Biological Cradle) की भी संज्ञा दी जाती है। इन वनों में दुर्लभ जीवजन्तु तथा पश्चिमी घाट में मिलने वाली कुछ दुर्लभ वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। कुछ साल पहले केरल सरकार ने इस क्षेत्र में केरल सरकार ने इस क्षेत्र में जलविद्युत परियोजना के निर्माण का निर्णय लिया था। इस योजना से 60 मेगावाट बिजली और मलावार क्षेत्र की 10,000 हैक्टर जमीन पर सिंचाई प्रस्तावित थी। इस योजना से शान्त घाटी के पर्यावरण तथा जैव विविधता को गंभीर खतरा संभावित था इसलिये कुछ पर्यावरणविदों तथा अनेक स्वयं सेवी संस्थानों ने उससे असहमत्ति जाहिर की। इसके बाद 30 अगस्त, 1979 को फ्रेन्डस आफ दी ट्रीज सोसाइटी द्वारा दायर की याचिका पर केरल उच्च न्यायालय ने स्थगन आदेश दिया। भारत सरकार ने बढ़ते आन्दोलनों तथा बौद्धिक दबाव के कारण शान्त घाटी में जलविद्युत्त योजना को रोक दिया।
जैवविविधता कर्नाटक चिपको आंदोलनः
उत्तरी कर्नाटक के समुद्र तट के समीप पश्चिमी घाट पर्वत श्रंखला है। यहाँ की जैवविविधता बहुत सम्पन्न है। इस क्षेत्र से बहुमूल्य औषधियों, चारा, फल तथा ईंधन प्राप्त होता है। इस क्षेत्र में सदाबहार वन पाए जाते हैं। चिपको आंदोलन से प्रेरणा लेते हुए यहाँ के स्थानीय निवासियों ने वृक्षों की कटाई का विरोध किया था। सन 1983 में कालासेकुडरगोड के जंगलों में 150 महिलाओं तथा 30 पुरुषों ने वृक्षों से चिपक कर 38 दिन तक वृक्षों की रक्षा की थी। इसके बाद, वृक्षों की कटाई पर रोक लगी। बेनगांव, हर्स तथा निडिगोड के जंगल बचे। इस आंदोलन से सारे दक्षिण भारत में जंगलों तथा पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ी। इस आन्दोलन का उददेश्य सदाबहार वनों के वृक्षों के साथ साथ जैवविविधता की रक्षा था।
वनों की आवश्यकताः
वनों की आवश्यकता निर्विवादित है क्योंकि वे अपनी प्राकृतिक शुद्धिकरण व्यवस्था को सक्रिय रख आक्सीजन का सन्तुलन बनाने में योगदान देते हैं। वनों के कम होने का मतलब है आक्सीजन की कनी। आक्सीजन की कमी का मतलब है जीवन पर संकट। इस कारण वे अपरिहार्य हैं। इसके अलावा, नदियों को पानी उपलब्ध कराने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। मनुष्यों के लिये औषधियों, भोजन, उद्योगों के लिये कच्चा माल प्रदान करते हैं। तापमान नियंत्रण में योगदान देते हैं, साथ ही खतरनाक मांसाहारी वन्य प्राणियों से समाज को सुरक्षित रखते हैं। पर्यावरण सन्तुलन एवं संरक्षण में उनका योगदान बहुआयामी और विविध है। वन पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र को सन्तुलन कायम रखने वाले प्रमुख एवं अनिवार्य घटक हैं इसलिए उनकी आवश्यकता निर्विवादित है।
जैवविविधता की आवश्यकताः
इकोसिस्टम सेवाओं के लिए जैवविविधता अनिवार्य है। उसके घटने से गरीबी बढ़ती है। यह आश्चर्यजनक है कि आदिवासियों ने अपनी परम्परात व्यवस्थाओं और रीति-रिवाजों द्वारा जंगलों के पर्यावरण को काफी हद तक ठीक स्थिति में रखा है। इसके उलट, जैव विविधता का विकृत रुप, सामान्यतः उन इलाकों में देखा गया है जहाँ वन और जीवन के रिश्तों की अनदेखी करने वाला समाज निवास करता है।
संरक्षण वन विभाग की भूमिकाः
वन कई लोग मानते हैं कि वन संरक्षण की जिम्मदारी केवल वन विभाग की है। यह सही नहीं है। यह सामाजिक जिम्मेदारी और नागरिक दायित्व भी है। वन संरक्षण में उद्योगों और कानून बनाने वालों की भी भूमिका है।
भविष्य में जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में बदलाव आवेगा। तापमान में वृद्धि होगी तथा वाष्पीकरण बढ़ेगा। वनों और वन्य प्राणियों पर पानी का संकट बढ़ेगा। उन्हें जलाभाव से बचाने के लिए पानी की माकूल व्यवस्था करना आवश्यक होगा। उस व्यवस्था का लक्ष्य जल-स्वावलम्बन होना चाहिए। जल स्वावलम्बन से जीव-जन्तुओं के लिये जंगल में भोजन और पानी का इन्तजाम सुनिश्चित होगा फूड-चैन पर पड़ने वाले असर की कमियों को दूर करने के लिए प्रयास करना होंगे।
वन संरक्षण आम आदमी की भूमिकाः
नागरिक जिम्मेदारी के अन्तर्गत समाज द्वारा वन विभाग को । पहला सुझाव मौजूदा प्रयासों की समीक्षा कुछ सुझाव दिए जा सकते है। पहला सुझ हो सकता है। दूसरा सुझाव हो सकता है जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव को कम कर वनों की सेहत तथा दायित्वों को बरकरार रखना। अर्थात वन और जैवविविधता को सुरक्षित रखने के लिए प्रत्येक वन समूह (Forest Grid) को जलवायु की प्रतिकूलता से निपटने योग्य बनाना। इसके लिए वन विभाग को अपनी कार्ययोजना में दो प्रमुख सुधार करने की आवश्यकता होगी। पहले सुधार के अन्तर्गत वनों में पानी के भंडार नदियों में अविरल प्रवाह के लिए योगदान, नमी की उपलब्धता, जैवविविधता और फूड-चेन जैसे अनेक बिन्दुओं को यथेष्ट रूप से समाहित करना होगा। दूसरे सुधार के अन्तर्गत्त भूमि कटाव और जल संरक्षण के कामों की तकनीकी दक्षता को और बेहतर बनाना होगा। समाज द्वारा कार्य योजना में दोहन और उत्पादन के सन्तुलन एवं जैवविविधता को आदर्श बनाने तथा मिश्रित यनों को विकसित करने हेतु अनुरोध किया जा सकता है। अपेक्षा होगी कि सामुदायिक वनों के विकास में ग्रामीण समाज की जिम्मेदारी बढ़े। विभाग इस हेतु पहल करें। समाज चाहेगा कि वन सम्पदा का दोहन प्रकृति से तालमेल और वनों की कुदरती भूमिका को ध्यान में रखकर हो। आक्सीजन की कमी के कारण जीवन पर संकट नहीं पनपे। समाज की यह भी अपेक्षा है कि सरकार की सहयोगी और उत्प्रेरक की हो। इंडियन फारेस्ट एक्ट 1927 में उल्लेखित ग्राम वन (Village Forest) की अवधारणा को लागू करना चाहिए। मौजूदा कायदे-कानूनों के बन्धनों के कारण आम आदमी जंगल में जाकर वृक्षारोपण नहीं कर सकता पर अपने घर के आसपास तो वृक्ष लगाने का काम कर ही सकता है। उनकी रक्षा कर सकता है। अपने मित्रों, सगे सम्बन्धियों तथा परिचितों को पेड़ लगाने के लिए प्रेरित कर सकता है। अनेक नगरीय निकाय तथा पंचायतें स्मृति-वनों को प्रोत्साहित करते हैं। हम अपने आसपास प्राणवायु बढ़ाने वाले कार्यक्रमों को सफल बनाने में अपना योगदान दे सकते हैं। सूखते पेड़ों को पानी देकर उन्हें बचा सकते हैं।
हरियाली से जुड़ा हर प्रयास हकीकत में योगदान होता है। उस नागरिक दायित्व को पूरा करने के लिए अपने घर में किचिन गार्डन, फूल वाले वृक्ष तथा सब्जियाँ लगावें। संभव हो तो टैरेस गार्डन विकसित करें। बड़े नगरों में कई मंजिला बिल्डिंग बनने लगी है। इनमें बहुत से लोग निवास करते हैं। उनकी आक्सीजन आवश्यकता को पूरा करने के लिए कई मंजिला बिल्डिंगों के आसपास सघन वृक्षारोपण होना चाहिए। हर बसाहट के आसपास ढेर सारे पार्क होना चाहिए। ढेर सारी हरियाली होना चाहिए।
लकड़ी के फर्नीचर का कम से कम उपयोग करें। कागज के इस्तेमाल में संयम बरतें। कागज के दोनों ओर लिखें। इससे कागज तो बचेगा ही वन भी बचेंगे। रीसाईकिल्ड कागज का लपयोग बढ़ावें। कम्पूटर संदेश का उपयोग करें। रेल टिकिट की हार्ड कापी के स्थान पर मोबाइल पर दर्ज टिकिट संदेश को बढ़ावा दें। अधिक से अधिक केशलेस ट्रान्जेक्शन करें। और भी अनेक तरीके हैं या हो सकते हैं जिन्हें अपनाने से जंगल बचाये जा सकते है। सामाजिक दायित्व पूरा किया जा सकता है।