सतपुड़ा के पर्णपाती वन

ओ, सतपुड़ा के पर्णपाती वन,

वृक्ष तुम्हारे क्यों है उन्मन।

परस्पर करते प्रतिस्पर्धा,

चाह उनकी छू ले गगन ।

मैने देखा

सतपुड़ा के बीहड़ जंगल,

वृक्ष वहाँ के कुछ उच्छृंखल।

सूर्य दीप्ति की अभिलाषा में,

आड़े तिरछे हो करते दंगल ।

पथिक दें आहार्य एक मुष्ठि,

क्षुधार्त वयस्क पाते सन्तुष्टि।

करे सभी आमोद संग उनके,

पथ में कपि दल करे प्रविष्टि।

रेवा का प्रवाह अति निर्मल,

पेंच नदी की हुई लहरे चंचल।

सूर्य रश्मियाँ करती अठखेली,

सरई पुहुप लुटाए वन में परिमल।

दिवसावसान भयावह हुई रात,

भय से काँप रहे थरथर गात।

श्रृगालों का शुरु समवेत गान,

मर्मर संगीत सुनाये शुष्क पात।

अंधकार संग वृक्ष हुए अस्पष्ट,

खुसुर-पुसुर बातें उनकी स्पष्ट।

जगजमगाते जुगनू झुरमुट में,

झींगुरों के स्वर अतिविशिष्ट।

सागौन महुआ करंजी बकायन,

सेमल शीशम पलाश अर्जुन।

वृक्ष सम्पदा से हो परितृप्त,

जनजाती को तुमसे संभरण।

उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन,

सतपुड़ा के रहो जंगल सघन।

तुमसे अस्तित्व निरभ्र मेघों का

वन्य जीवों को देते तुम शरण।

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