प्रकृति रहती निःशब्द

– कमल चंद्रा

प्रकृति रहती निःशब्द
करती रहती वह अपने काम
अनवरत बिना रुके और बिना थके
सृष्टि चलती निःशब्द
चाँद – सूरज आते जाते नियम से
कौन जगाता कौन सुलाता
सागर, सरिता चलें निःशब्द
ज़ब उनको छेड़ा न जाता
मौन रहा निःशब्द बनकर हमारी शक्ति
हम अपनी शक्ति क्षीण करें, ऊर्जा को व्यर्थ करें.
क्यों नहीं करते नियत कार्य रहकर मौन
शक्ति वेग को थम के भीतर कुछ अच्छा कर जाएँ
वाचाल बनकर विवाद बढ़ा कर
क्यों उलझे दुनियादारी में?
रहें सदैव शांत चित्त से
और रहने दे प्रकृति को भी शांत

लेखिका :
स्वतंत्र लेखक, कवियत्री एवं
अध्यक्ष वरिष्ठ नागरिक काव्यमंच
मध्यप्रदेश ईकाई

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